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आचार्य श्रीराम शर्मा >> कर्मकांड क्यों और कैसे

कर्मकांड क्यों और कैसे

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4139
आईएसबीएन :0000

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जिज्ञासा हमारी समाधान प.पू.गुरुदेव द्वारा....

Karmkand Kyon Aur Kaise

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय निवेदन

आज हिंन्दू समाज में कर्मकांडों के प्रति सर्वत्र अनास्था का वातावरण व्याप्त दिखलाई पड़ रहा है। बहुत ही थोड़े लोग हैं, जो निष्ठा और श्रद्धा के साथ कर्मकांडों के विधि-विधानों का पालन करते हैं, शेष अश्रद्धा के अंधकार में भटक रहे हैं। ऐसा क्यों है। इस पर विचार करना होगा।
यदि हम संसार के अन्य धर्म-संप्रदायों को देखें तो हमें ज्ञात होगा कि उनमें से प्रत्येक में किसी न किसी रूप में कर्मकांड की व्यवस्था है पर उन संप्रदायों के अनुयायियों के मन में अपने कर्मकांडों के प्रति वैसी अनास्था नहीं है जैसी अपने समाज में व्याप्त है। संभवत: इसका प्रमुख कारण हो सकता है कि उन संप्रदायों में उदार एवं स्वतंत्र चिंतन की उतनी खुली छूट नहीं है जितनी हिन्दू धर्म ने दे रखी है। इस उदार एवं स्वतंत्र चिंतन की परंपरा का आज हिन्दू समाज में दुरुपयोग होता दिखलाई पड़ रहा है और इसका मूल कारण है हमारा अधकचरा ज्ञान तथा इसके लिए जिम्मेदार है हमारी दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति जो हमें दिशाहीनता एवं मूल्य विहीनता के गुफा-कंदरा में भटकने के लिए विवश कर रही है।
हिन्दू कर्मकांडों के प्रति फैली हुई भ्रांतियों को दूर करने और उसके प्रति श्रद्धा का भाव जगाने के लिए ही बड़ी सरस एवं सरल प्रश्नोत्तर में इस पुस्तक की रचना की गई है।

प्रारम्भ के 21 पृष्ठों में कर्मकांण्ड की विविध क्रियाओं के ‘क्यों और कैसे’ का उत्तर देने का लघु एवं सरल प्रयास है। इसके आगे के पृष्ठों में गायत्री उपासना की उपादेयता, गायत्री साधना की सरल विधि, उपासना, साधना और अराधना के त्रिविध उपायों एवं प्रज्ञायोग को भी संक्षेप में समझाने का प्रयास है।
हमारा विश्वास है कि गायत्री परिवार के समस्त सदस्य एवं इस पुस्तक को पढ़कर लाभान्वित होंगे एवं इसकी प्रतियाँ मंगाकर अन्य नए परिजनों तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे।

कर्मकांड क्यों और कैसे ?


जप एवं सिद्धि

हमने अपने जीवन में ऐसे कई व्यक्ति देखे जिन्होंने कठोर तपस्या की थी फिर भी उनमें सिद्धि दृष्टिगत नहीं होती जैसी कि परम पूज्य गुरुदेव ने प्राप्त की थी। अवसर पाकर एक दिन पूज्यवर से मैंने पूछ ही लिया ‘‘हे गुरुदेव ! आपने गायत्री मंत्र का जाप किया है औरों ने भी उसी 24 अक्षर वाले गायत्री मंत्र का जाप किया है आप फिर उन लोगों को आप जैसी सिद्धि उपलब्ध क्यों नहीं हो सकी है ?’’
पूज्यवर ने मुस्कराकर कहा ‘‘बेटा हमने इस गायत्री मंत्र का जप तो बाद में किया है। पहले अपने बहिरंग एवं अंतरंग का परिष्कार किया है। इसके बिना सारी आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त होने पर भी अप्राप्त होने के ही समान हैं। हमने धोबी की तरह अपने मन को पीट-पीट कर धोया है। केवल जप करने से तो किसी को लाभ मिलता ही नहीं।’’
यह कहकर गुरुजी ने एक आंखों देखी घटना सुनाई। ‘‘हिमालय में दो महात्मा रहकर तपश्चर्या कर रहे थे। वे निर्वस्त्र एवं मौनी थे। कुछ जमीन थी उससे कंद-मूल-फल प्राप्त हो जाता था। गुफा में रहते थे, खाते थे व जीवन निर्वाह करते थे। एक बार दोनों महात्मा गर्मी के दिनों में गुफा के बाहर जमीन की सफाई कर रहे थे। अपनी-अपनी गुफा के सामने यह सफाई का क्रम एक दो दिन चलता रहा। एक दिन एक महात्मा ने दूसरे महात्मा की थोड़ी सी जमीन पर कब्जा कर लिया। दूसरा महात्मा क्रोधित हुआ। उसने इशारा किया, त्योरियां चढ़ गईं। दोनों मौन थे। उनका यह मौन युद्ध आगे बढ़ा, घूंसा-लात मारने तक नौबत आ गई। एक ने दूसरे महात्मा की दाढ़ी उखाड़ ली, खून बहने लगा।’’

पूज्यवर ने कहा ‘‘हमें आश्चर्य हुआ कि हिमालय के मौन तपस्वी, गुफा में जीवन व्यतीत करने वाले ये साधक और इनकी ऐसी स्थिति।
धिक्कार है ऐसी साधना को। जब तक अपना परिष्कार नहीं होता तब तक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक व्यक्ति अपनी धुलाई-सफाई नहीं कर लेता तब तक उसे मंत्र सिद्ध हो ही नहीं सकता। यदि किसी प्रकार हो भी जाए तो भस्मासुर के समान स्वयं को ही भस्म कर सकने से अधिक उसका कोई लाभ नहीं हो पाएगा। तपस्या तो भागीरथ ने की थी, लोकमंगल के लिए, परमार्थ के लिए सब कुछ त्याग कर दिया था। तभी तो स्वर्गलोक में बहने वाली सुर-सरिता गंगा मइया को गोमुख से निकाल कर धरा पर लाने में सक्षम हो पाए थे। यदि भस्मासुर का भी ऐसा उद्देश्य होता तो वह कितने ही लोगों का कल्याण कर सकता था। भस्मासुर भी भगवान शिव से यह वर माँग सकता था कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखूँ वह तुरंत निरोगी हो जाए। परन्तु उसने अपना परिष्कार तो किया ही नहीं था। लोभ-मोह-वासना-तृष्णा जब तक हैं वह व्यक्ति ऊपर उठ नहीं सकता। ये आसुरी प्रवृत्तियाँ पतनोन्मुखी बना देती हैं।
आत्म शोधन की प्राथमिक पाठशाला उत्तीर्ण करने के बाद ही अध्यात्म की पहली सीढ़ी पर कदम रखकर आगे बढ़ा जा सकता है। आत्मशोधन यदि कर लें तो आत्मविकास का मार्ग खुल जाता है। हमने 24 वर्ष तक मात्र जौ की रोटी और छाछ ग्रहण करके जीवन बिताया। किसी प्रकार के चटपटे नमक, मिर्च, मसाले का प्रयोग नहीं किया। जीभ को काबू में किया है तभी तो जीव को भी काबू में कर सके हैं। यदि स्वादेंद्रिय पर काबू पा लिया जाए तो दसों इंद्रियां और मन सभी अपने दास बन जाते हैं। अत: साधक को पहले अपने मन को धोना पड़ता है। कबीर दास ने ठीक ही कहा है-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर-कबीर।।
तुलसीदास ने भी मानस में यही लिखा है-
निर्मल मन सोहि जन मोहि भावा।
मोहि कपट, छल, छिद्र न भावा।।

इतना कर लिया तो निश्चित ही भगवान को पा सकते हैं, चाहे वह जैन हो, मुसलमान हो, बौद्ध हो, ईसाई हो या फिर हिन्दू हो।’’
पूज्यवर के इन समाधानपरक विचारों को सुनकर संतुष्टि हुई, मन का ऊहापोह समाप्त हुआ। अपने भी अंत:करण की उसी दिन से धुलाई प्रारंभ कर गुरुजी के निर्देशानुसार हमने जीवन साधना का क्रम आगे बढाया।

पवित्रीण क्यों और कैसे ?

गुरुदेव तो अधिकतर ध्यान में ही रहते थे। तपोभूमि में आने वाले अतिथियों और यात्रियों से तो हमें ही निपटना होता था, उनकी शंकाओं का समाधान करना होता था। तर्कशील व्यक्ति को संतुष्ट करने में कभी-कभी बड़ी कठिनाई होती थी। इसी से एक दिन हमने पूज्य गुरुदेव से प्रश्न किया ‘‘गुरुदेव ! पवित्रीकरण सर्वप्रथम क्यों करते हैं ? क्या जल हथेली में लेकर मंत्र पढ़कर छिड़क लेने मात्र से हम पवित्र हो जाते हैं ? फिर हम तो पहले ही नहा धोकर साफ धुले वस्त्र पहनकर बैठते हैं।’’
इस पर गुरुजी पहले तो खूब हँसे फिर बाद में बोले, ‘‘बेटा ! क्रिया के साथ भावना भी आवश्यक है। मात्र स्थूल उपचार से कुछ होता नहीं। अध्यात्म को गहराई में घुसकर जानना होता है। मोती समुद्र में भीतर ही मिलते हैं, ऊपर तो कंकण पत्थर ही हाथ आते हैं। केवल जप से जीभ हिलाने से फायदा हैं नहीं। भावना के बिना जप बेकार होता है। मंत्र के साथ यह भावना करनी चाहिए कि चारों तरफ से पवित्रता की वर्षा हो रही है दो हमारी अपवित्रता को, मलिनता को धो रही है। धरती गर्मी के दिनों में तपने लगती है परन्तु जब बरसात होती है तो चारों ओर हरियाली, शीतलता छा जाती है। पवित्रीकरण के साथ भी ऐसी ही भावना करनी चाहिए कि आध्यात्मिकता की वर्षा से शरीर के ताप निकल रहे हैं, दूर हो रहे हैं। शांति की, करुणा की, संवेदना की, पवित्रता की फुहारें पड़ रही हैं, मन शुद्ध और पवित्र हो रहा है। परन्तु आजकल तो लोग भावना यह करते हैं कि हमारी भैंस दूध कम क्यों कर रही है ? हमें भगवान ने बेटा क्यों नहीं दिया ? धन सम्पत्ति क्यों नहीं दी ? इस प्रकार की मनौतियों का क्रम चल पड़ा है।
क्रिया तो केवल संकेत है, इशारा है, प्रतीक है। जिस प्रकार रेलगाड़ी को गार्ड लाल झंडी दिखाते हैं तो गाड़ी रुक जाती है, हरी झंड़ी दिखाते हैं तो चल पड़ती है। भावना का ही दूसरा नाम ‘देवता’ है। शंकर भगवान् कैलाश पर्वत पर ढूँढ़ने से मिलने वाले नहीं हैं। मीरा ने तो भावना से ही पत्थर की मूर्ति में भगवान कृष्ण के साक्षात दर्शन कर लिए थे। एकलव्य ने भावना से, श्रद्धा से गुरुद्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उससे की धनुर्विद्या सीख ली थी। उत्कृष्ट भावनाएं ही देवता बनकर हमारी सहायता को आती हैं। वे भावनाएं ही तो थीं जिनके बल पर भगवान् स्वयं नंदा नाई की जगह पैर दबाने चले गए थे, सुदामा के चरण धोकर पी गए थे, शबरी के घर जूठे बेर खाने पहुंच गए थे। भगवान को चापलूसी नहीं श्रेष्ठ कार्य ही पसंद होते हैं। शरीर और मन की पवित्रता, शुद्धता से ही भगवान का अवतरण होता है। पवित्र आचरण करना चाहिए।
ऐसी भावना और आचरण से जब पवित्रीकरण की क्रिया होगी तो शरीर और अंत:करण की धुलाई होगी। हमें इसी भावना से शरीर-मन-अंत:करण को पवित्र करना चाहिए।’’


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